Kalonji Ki Kheti : इस विधि से करे कलौंजी की खेती होगा लाखो का मुनाफा

हेलो दोस्तों स्वागत है आपका upagriculture के नई पोस्ट कलौंजी की खेती ( Kalonji Ki Kheti ) में आज के इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको कलौंजी की खेती ( Kalonji Ki Kheti ) के बारे में बताएंगे यदि आप भी कलौंजी की खेती ( Kalonji Ki Kheti ) करना चाहते हैं तो इस ब्लॉग को अंत तक अवश्य पढ़े

कलौंजी की खेती ( Kalonji Ki Kheti )

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कलौंजी ( kalonji )की फसल एक औषधीय फसल है, जिसका प्रयोग विभिन्न प्रकार की परंपरागत दवाओं को बनाने में किया जाता है। यह डायरिया, अपच और पेट दर्द जैसी बीमारी के लिए बहुत ही ज्यादा फायदेमंद होता है कलौंजी का उपयोग यकृत के लिए लाभकारी है। इसका प्रयोग सिर दर्द और माइग्रेन में भी किया जाता है। इसके बीज में 0.5 से 1.6 प्रतिशत तक आवश्यक तेल पाया जाता है,|

जो कि अमृतधारा इत्यादि औषधियों के बनाने में काम आता है। कलौंजी की खेती के लिए कार्बनिक पदार्थ वाली बलुई दोमट मृदा अच्छी रहती है। पुष्पण और बीज के विकास के समय मृदा में उचित नमी का होना आवश्यक है।कलौंजी की खेती ( Kalonji Ki Kheti ) के लिए कम से कम 5-6 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है।कलौंजी की खेती ( Kalonji Ki Kheti ) से किसानों कों काफी अधिक लाभ प्राप्त होगा |

कलौंजी की खेती के लिए उन्नत किस्में

Kalonji Ki Kheti

एन.आर.सी.एस.एस.एन.-

यह प्रजाति 135 दिनों में तैयार हो जाती है। यह जड़गलन रोग के प्रति सहनशील है। इसकी उत्पादन क्षमता 12 क्विंटल/हैक्टर है।

आजाद कलौंजीः

यह 130 से 135 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 8-10 क्विंटल/ हैक्टर है।

एन.एस.-44:

यह 140 से 150 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 4.5-6.5 क्विंटल/हैक्टर है।

एन.एस.-32:

यह 140 से 150 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 4.5-5.5 क्विंटल/हैक्टर है।

अजमेर कलौंजीः

यह 135 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 8 क्विंटल/हैक्टर है।

कालाजीराः

यह फसल 135 से 145 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 4-5 क्विंटल/ हैक्टर है।

अन्य किस्में:

राजेन्द्र श्याम एवं पंत कृष्णा।

कलौंजी (काला जीरा) रनेनकुलेसी परिवार की बीजीय मसाला फसल है। इसका उत्पत्ति स्थान मेडिटेरियन क्षेत्र है और पश्चिमी एशिया से पूर्वी एशिया में इसका विस्तार हुआ। कलौंजी के उत्पादन में भारत, विश्व में प्रथम स्थान पर है। मध्य प्रदेश में रीवा, मंडला, शाजापुर, उज्जैन, रतलाम, नीमच और मंदसौर जिलों में इसको बहुतायत से उगाया जाता है।

कलौंजी की खेती के उपयूक्त जलवायु

उत्तर भारत में कलौंजी की खेती ( Kalonji Ki Kheti ) में कलौंजी बुआई रबी की फसल के रूप में की जाती है। प्रारंभ में वानस्पतिक वृद्धि के लिए ठंडा मौसम अनुकूल होता है, जबकि बीज परिपक्व होते समय शुष्क एवं अपेक्षाकृत गर्म मौसम उपयुक्त होता है।

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कलौंजी की खेती भूमी की तैयार

यद्यपि कलौंजी के बीज ( kalonji seeds )को विभिन्न प्रकार की मृदा में उगाया जा सकता है, लेकिन पर्याप्त कार्बनिक पदार्थ वाली बलुई दोमट मृदा उत्तम होती है। मृदा, भुरभुरी एवं उचित जल निकास वाली होनी चाहिए।खेत की तैयारी के लिए एक गहरी जुताई तथा दो-तीन उथली जुताइयों के बाद पाटा लगाना पर्याप्त होता है। बआई से पूर्व खेत को सुविधानुसार छोटी-छोटी क्यारियों में बांट लेना चाहिए, |

ताकि सिंचाई के जल का फैलाव समान रूप से हो सके इससे बीज का जमाव एक समान होता है 5 और फसल अच्छी होती है। अगर मृदा में दीमक की समस्या है तो अंतिम जुताई के समय क्विनॉलफॉस 1.5 प्रतिशत अथवा मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत में से किसी एक दवा की 25 कि.ग्रा. मात्रा को प्रति हैक्टर की दर से खेत में एक समान बिखेर कर मिला दें।

कलौंजी की खेती में खरपतवार नियंत्रण

जब फसल 30-35 दिनों की हो जाये, उसी समय कतारों से अतिरिक्त पौधों को भी निकाल देना चाहिए, ताकि फसल वृद्धि एवं विकास अच्छी तरह हो सके। दूसरी निराई-गुड़ाई 60-70 दिनों के बाद करनी चाहिए। इसके बाद अगर आवश्यक हो तो एक निराई और कर देनी चाहिए। रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डिमेथलिन दवा 1 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व को जमाव पूर्व 500-600 लीटर पानी में घोलकर मृदा पर छिड़काव करना चाहिए। इस विधि से कलौंजी की खेती ( mangrela ki kheti ) करके काफी अच्छा मुनाफा कमा सकते है |

बुआई का समय

उत्तर भारत में बुआई के लिए मध्य सितंबर से मध्य अक्टूबर सबसे अच्छा होता है।

बीजदर

कलौंजी की खेती ( Kalonji Ki Kheti ) में सीधी बुआई के लिए 7 कि.ग्रा. बीज एक हैक्टर के लिए पर्याप्त होता है।

बीजोपचार

कलौंजी की खेती ( Kalonji Ki Kheti ) में बीज को बुआई से पूर्व कैप्टॉन, थीरम व बाविस्टीन से 2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. की दर से उपचारित करना चाहिए।

बुआई की विधि
कतार विधिः

कलौंजी की खेती ( Kalonji Ki Kheti ) इस विधि का उपयोग करने के लिए सबसे पहले बीजों की बुआई करने के लिए 30 सें.मी. की दूरी के कतारों कों तैयार कर लेना चाहिए। बीज बोते समय यह जरुर ध्यान रखना चाहिए कि गहराई 2 सें.मी. से ज्यादा न हो अन्यथा बीज जमाव पर इसका असर पड़ता है।

कलौंजी के फसलो की सिंचाई

पुष्पण एवं बीज विकास के समय मृदा में उचित नमी का होना आवश्यक है।अच्छी पैदावार के लिए कल 5-6 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है।

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कलौंजी के फसल में लगने वाले रोग तथा रोगथाम 

जड़ सड़न रोग :
कलौंजी की खेती ( Kalonji Ki Kheti ) यह रोग राइजोक्टोनिया और फ्यूजेरियम द्वारा संयुक्त रूप से उत्पन्न होता है। इस रोग में रोगग्रस्त पौधे पहले तो पीले दिखते हैं तथा बाद में पत्तियां सूख जाती हैं और पौधा मर जाता है। इससे बचाव के लिए बीज को बुआई से पूर्व ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए। गर्मी की जुताई एवं उचित फसलचक्र अपनाने से भी जड़ रोग का प्रकोप कम होता है।
माहूं (एफिड) कीट रोग :
कलौंजी की खेती ( Kalonji Ki Kheti ) यह कीट मुख्य रूप से वयस्क तथा प्रौढ़ फसल को ही नुकसान पहुंचाते हैं। ये कीट फसल के कोमल अंगो के रस कों चूस लेते हैं। जिस कारण से फसल की उपज घट जाती है। इसके नियंत्रण के लिए 0.1 प्रतिशत मैलाथियान (50 ई.सी.) अथवा 0.03 प्रतिशत डाइमेथोएट (30 ई.सी.) दवा के 500 लीटर घोल का प्रति हैक्टर के हिसाब से प्रभावित फसल पर छिड़काव करना देना चाहिए।
दीमक कीट रोग :

कलौंजी की खेती ( Kalonji Ki Kheti ) यह कीट कलौंजी को काफी हानि पहुंचाता है। दीमक फसल के विभिन्न भागों को खाकर हानि पहुंचाता है। इसकी रोकथाम के लिए 4 लीटर प्रति हैक्टर की दर से क्लोरोपाइरीफॉस की उचित मात्रा कों पानी में मिलाकर छिडकाव कर देना चाहिए |

सामान्यतः पूछे जाने वाले प्रश्न 

कलौंजी का सेवन किसे नहीं करना चाहिए ?

कलौंजी का सेवन स्तनपान कराने वाली महिलाओं को नहीं करना चाहिए वैसे तो कलौंजी के कोई साइड इफेक्ट नहीं होते हैं परंतु यदि आप अधिक मात्रा में इसका सेवन करते हैं तो रक्त शर्करा और निम्न रक्तचाप हो सकता है |

कलौंजी की तासीर कैसी होती है ?

कलौंजी की तासीर गर्म होती है सर्दियों के मौसम में कलौंजी का इस्तेमाल करने से शरीर में गर्मी बढ़ते हैं |

कलौंजी लीवर के लिए अच्छा क्यों होता है ?

कलौंजी का सेवन करने से लीवर में रक्त का प्रवाह नियंत्रित बना रहता है इस प्रकार ऑक्सीजन के स्तर में कमी के कारण होने वाले नुकसान को रोकने में मदद कर सकता है और यह लीवर की रक्षा भी करता है |

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